माकपा ने कहा-भ्रष्टाचार को वैध बनाती है चुनावी बांड

  • माकपा बोला-गुमनाम कॉर्पोरेट दानदाताओं द्वारा सत्तारूढ़ पार्टी को वित्त पोषित करने के लिए बनाई गई इस बेईमान योजना को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है।
  • माकपा का दावा-चुनाव आयोग के साइट पर इलेक्टोरल बांड का डिस्प्ले होते ही व्यक्त की गई आशंकाएं सही साबित हो सकती हैं।

सूचनाजी न्यूज, भिलाई। माकपा नेता डीवीएस रेड्डी ने बयान जारी कर कहा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) सीपीआई (एम) के पोलित ब्यूरो ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले की सराहना की, जिसने चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार दिया है।

इस फैसले से गुमनाम कॉर्पोरेट दानदाताओं द्वारा सत्तारूढ़ पार्टी को वित्त पोषित करने के लिए बनाई गई इस बेईमान योजना को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है।

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सीपीआई (एम) ने शुरुआत में ही घोषणा कर दी थी कि पार्टी चुनावी बांड स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि यह योजना भ्रष्टाचार को वैध बनाती है।

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सीपीआई (एम) ने अन्य याचिकाकर्ताओं के साथ चुनावी बांड योजना को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।  यह संतुष्टि की बात है कि योजना के खिलाफ याचिका में दिए गए मुख्य तर्कों को बरकरार रखा गया है।

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कानूनी तौर पर दी गई रिश्वत है इलेक्टोरल बॉन्ड

नगर समिति सचिव अशोक खातरकर ने कहा कि मौजूदा केंद्र सरकार द्वारा इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक दलों को चंदा देना आसान किया गया अब कौन सी कंपनी किस पार्टी को चंदा दे रही है। यह सब गोपनीय रहता है कंपनी गुप्त रूप से किसी भी राजनीतिक दल को कितना भी चंदा दे सकती है।

इसमें यह भी संभावना है कि कंपनी बैंक का लोन न चुका कर अपने आप को दिवालिया घोषित कर सकती है। किंतु सत्तारूढ़ पार्टी को चंदा देने के बदले सरकार उस कंपनी का लोन माफ भी कर सकती है।

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क्या है राजनीतिक दलों को चंदा देने का पुरानी एवं नए कानून में अंतर

माकपा नेता पी. वेंकट में कहा कि पहले कंपनी किसे चंदा दे रही है, उसका हिसाब बताती थीं। अर्थात कंपनी को बही खाता में बताना होता था कि किस पार्टी को कितना चंदा दिया गया है। अब कंपनी को केवल यह बताना होता है कि उसने कितना चंदा दिया है। किंतु कंपनी किसे चंदा दे रही है, कितना चंदा दे रही है, इस सब का हिसाब बताने की आवश्यकता नहीं है।

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पहले यह बंदिश था कि 3 साल तक लगातार मुनाफा करने वाली कंपनी ही चंदा दे सकती थी, उसके साथ कंपनी 3 साल तक जितना प्रॉफिट करेगी, उसका 7.5% ही चंदा के रूप में दे सकती है।

अब किसी कंपनी द्वारा किसी राजनीतिक दल को चंदा देने के लिए 3 साल तक मुनाफा कमाने का कोई बंदिश नहीं है। अर्थात घाटे में रहने वाली कंपनी भी राजनीतिक दल को चंदा दे सकती है।

अर्थात कंपनियां कर्मचारियों को वेतन ना दे उनसे काम लेकर उनको खटाते रहे और नेताजी को खुश करने के लिए पार्टी में चंदा दे दे

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पारदर्शिता पर उठे सवाल

अशोक खातरकर ने कहा कि सरकार की दलील है कि चंदा देने वाले यह अपेक्षा कर रहे थे कि गोपनीय रखी जाए। अर्थात उनके नाम एवं उनके द्वारा दी गई रकम सार्वजनिक ना हो जबकि वास्तविकता यह है कि केंद्र में बैठी सरकार आसानी से यह देख सकती है कि कोई कंपनी किस पार्टी को कितना चंदा दे रही है।

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फिर यह सभी पार्टियों के लिए गोपनीय कैसे रहा जब सरकार को यह पता रहेगा कि कौन सी कंपनियां किस पार्टी को चंदा दे रही है तो यह भी स्वाभाविक है कि चंदा देने वाले अधिकांश कंपनियां का झुकाव सरकार में बैठी पार्टी के तरफ ही ज्यादा होगा।

जो विभिन्न राजनीतिक दलों को प्राप्त चंदा से स्पष्ट है अर्थात सबसे ज्यादा पैसा बीजेपी को दिया गया क्योंकि सरकार में बैठी भाजपा न केवल इस पर नजर रखती है बल्कि दूसरे पार्टी को चंदा देने वाले कंपनियों पर तरह-तरह की करवाई है भी करवा दिए

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आपत्तियों को दरकिनार किया था केंद्र सरकार ने

इलेक्टोरल बांड पर चुनाव आयोग एवं रिजर्व बैंक ने आपत्ति दर्ज कराई थी एवं मनी लॉन्ड्रिंग की आशंका व्यक्त की गई थी यह भी आशंका का व्यक्त की गई थी कि विदेश का पैसा भी चंद के रूप में गुप्त रूप से आने का रास्ता खुल गया।

जबकि केंद्र सरकार विपक्ष पर विदेशी पैसा लेने का आरोप लगाते रही है। चुनाव आयोग के साइट पर इलेक्टोरल बांड का डिस्प्ले होते ही व्यक्त की गई आशंकाएं सही साबित हो सकती हैं।

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